Monday 7 November 2016

Honey Bee Farming in India

Honey Bee Farming in India

BEE FARMING TIPS IN HINDI


Honey and beekeeping have a long history in India. Honey bee farming is quite interesting. It is one of the most enjoyable types of businesses out there. The honey bee extracts honey from its natural surroundings and then converts it into something that is consumable. In addition, honey bees help to pollinate the vegetables and fruits in one’s area. The following are some of the aspects involving
         In India beekeeping has been mainly forest based. Several natural plant species provide nectar and pollen to honey bees. Thus, the raw material for production of honey is available free from nature. Bee hives neither demand additional land space nor do they compete with agriculture or animal husbandry for any input. The beekeeper needs only to spare a few hours in a week to look after his bee colonies. Beekeeping is therefore ideally suited to him as a part-time occupation. Beekeeping constitutes a resource of sustainable income generation to the rural and tribal farmers. It provides them valuable nutrition in the form of honey, protein rich pollen and brood. Bee products also constitute important ingredients of folk and traditional medicine.
        The establishment of Khadi and Village Industries Commission to revitalize the traditional village industries, hastened the development of beekeeping. During the 1980s, an estimated one million bee hives had been functioning under various schemes of the Khadi and Village Industries Commission. Production of apiary honey in the country reached 10,000 tons, valued at about Rs. 300 million.
        Side by side with the development of apiculture using the indigenous bee, Apis cerana, apiculture using the European bee, Apis mellifera, gained popularity in Jammu & Kashmir, Punjab, Himachal Pradesh, Haryana, Uttar Pradesh, Bihar and West Bengal. Wild honey bee colonies of the giant honey bee and the oriental hive bee have also been exploited for collection of honey. Tribal populations and forest dwellers in several parts of India have honey collection from wild honey bee nests as their traditional profession. The methods of collection of honey and beeswax from these nests have changed only slightly over the millennia. The major regions for production of this honey are the forests and farms along the sub-Himalayan tracts and adjacent foothills, tropical forest and cultivated vegetation in Rajasthan, Uttar Pradesh, Madhya Pradesh, Maharashtra and Eastern Ghats in Orissa and Andhra Pradesh.
Honey Bee Farming in Rajasthan


राजस्थान के भरतपुर जिले की पहचान केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान के साथ-साथ शहद उत्पादक जिले के रूप में बनती जा रही है। यदि पर्यावरणीय परिस्थितियां अनुकूल रहीं तथा सरकार द्वारा शहद का समर्थन मूल्य घोषित किया जाता रहा तो भरतपुर राजस्थान में सबसे अधिक शहद उत्पादन करने वाला जिला बन जायेगा।
गत वर्ष इस जिले में 960 मीट्रिक टन शहद उत्पादन हुआ जो एक रिकार्ड उत्पादन है। यह रिकार्ड भी टूट सकता है अगर तीन चीजें साथ दें। आगामी सर्दियों के मौसम में कोहरा जैसी स्थिति पैदा न हो। केन्द्र सरकार शहद का समर्थन मूल्य घोषित कर दे और राष्ट्रीय मधुमक्खी पालन बोर्ड को पुनर्गठित कर इसे क्रियाशील बना दिया जाए तो भरतपुर जिले में शहद का उत्पादन बढ़ कर 1100 मी. टन तक पहुंच जायेगा। यदि शहद का समर्थन मूल्य 500 रुपये क्विंटल भी घोषित कर दिया तो यह व्यवसाय इतनी तेजी से बढ़ेगा कि राजस्थान के सरसों उत्पादक जिलों में करीब 25 से 30 हजार युवकों को अतिरिक्त रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे। साथ ही पैदावार भी 15 से 20 प्रतिशत बढ़ जायेगी।
मधुमक्खी पालन का व्यवसाय भरतपुर जिले में लुपिन ह्यूमन वेलफेयर एण्ड रिसर्च फाउंडेशन द्वारा करीब 6 वर्ष पूर्व शुरू कराया गया। धीरे-धीरे यह व्यवसाय अन्य जिलों जैसे धौलपुर, अलवर, करौली एवं सवाई माधोपुर में भी फैल गया। पिछले तीन वर्षों में यह व्यवसाय इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि करीब 2 हजार युवक इस व्यवसाय से किसी न किसी रूप में जुड़ गये। पिछले वर्ष शहद के दामों में आई गिरावट का हल्का सा असर इस संख्या के ऊपर पड़ा। लेकिन चूंकि अब शहद प्रसंस्करण यूनिट चालू हो गयी है, इसलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि यह व्यवसाय अब छोटे-मोटे झटकों से प्रभावित नहीं होगा। साथ ही रोजगार के नए अवसर भी पैदा होंगे। शहद प्रसंस्करण यूनिट के कारण मधुमक्खी पालक शहद निर्यातक को औने-पौने दामों में शहद बेचने की बजाए अब खुद शहद को प्रसंस्करण कराने के बाद उचित मूल्य पर बेचेंगे। लुपिन संस्था इस व्यवसाय को तेजी से आगे बढ़ाने के लिये अब तक करीब 3 हजार युवकों को मधुमक्खी पालन का प्रशिक्षण दे चुकी है। मधुमक्खी पालन व्यवसाय की खातिर लिए गये ऋण पर खादी ग्रामोद्योग भी करीब 30 प्रतिशत का अनुदान उपलब्ध कराने का कार्य कर रहा है।
लुपिन के अधिशाषी निदेशक सीताराम गुप्ता का कहना है कि यदि राजस्थान के सरसों उत्पादक करीब 11 जिलों में यह कार्य शुरू कराया जाये तो प्रतिवर्ष लगभग 50 हजार युवाओं को रोजगार मिल सकेगा। उनका कहना था यदि राज्य सरकार स्कूली बच्चों के लिये संचालित मिड-डे मील योजना में दस ग्राम शहद उपलब्ध कराना भी शुरू कर दे तो इससे बच्चों को उपयोगी खनिज पदार्थ और विटामिन प्राप्त होंगे, जिससे उनका स्वास्थ्य अधिक बेहतर होगा। साथ ही राज्य के मधुमक्खी पालकों को स्थानीय बाजार उपलब्ध हो सकेगा। अभी तक हमारे देश में शहद की प्रति व्यक्ति खपत 8 ग्राम से भी कम है जबकि जर्मन लोग शहद की गुणवत्ता एवं उपयोगिता से परिचित होने के कारण विश्व में सर्वाधिक मात्रा में इसका उपयोग करते हैं। वहां प्रति व्यक्ति शहद की खपत करीब 2 किलोग्राम है। इसी कारण जर्मनी सर्वाधिक शहद का आयात करता है। शहद की मांग की पूर्ति करने में चीन सबसे आगे है। वह प्रतिवर्ष 80 हजार टन शहद निर्यात करता है। भारत की बात करें तो यह 7 हजार टन शहद निर्यात कर रहा रहा है जिसे आसानी से बढ़ाकर प्रतिवर्ष 25 हजार टन किया जा सकता है।
भरतपुर जिले में मधुमक्खी पालन व्यवसाय के फलने-फूलने का मुख्य कारण करीब एक लाख 70 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में बोई जाने वाली सरसों की फसल एवं मौसमी परिस्थितियां हैं। मधुमक्खियों को मध्य अक्टूबर से जनवरी माह के अंत तक सरसों की फसल से मकरंद एवं पराग प्रचुर मात्रा में मिलता है। इन दिनों तापमान भी 20 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक नहीं रहता है। इस कारण मधुमक्खियां अपना काम अधिक गति से करती हैं जिससे मधुमक्खियों के छत्ते एक सप्ताह में शहद से भरने लगते हैं। मकरंद एवं पराग से बना शहद घी की तरह जमा हुआ होता है। इसकी विदेशों में भारी मांग होती है। क्योंकि वहां डबल रोटी पर मक्खन के स्थान पर शहद लगाकर खाने का प्रचलन बढ़ा है।
इस व्यवसाय को गति देने में सबसे महत्वपूर्ण कारण यह भी रहा कि शहद के विपणन के लिये मधुमक्खी पालकों को कहीं और नहीं जाना पड़ता बल्कि शहद के निर्यातक सीधे मधुमक्खी पालकों से ही शहद खरीद लेते हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि जिस फसल अथवा वृक्षों के फूलों से मधुमक्खियां मकरंद एकत्रित करके लाती हैं उसी के अनुरूप शहद की रंगत, खुशबू एवं किस्म बन जाती है। जिसकी वजह से अलग-अलग फसलों के शहद की कीमत भी अलग-अलग रहती है।
इसके अलावा एक और कारक है जिसने इस व्यवसाय की वृद्धि की है। वह यह कि जिस फसल के पास मधुमक्खियों के डिब्बों को रखा जाता है उस फसल के उत्पादन में करीब 20 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। इसके पीछे रहस्य यह है कि मधुमक्खियां मकरंद एकत्रित करते समय फसलों के फूलों से पराग कण अपने पंखों व पैरों के साथ चिपकाकर एक फूल से दूसरे फूल तक ले जाने में सहायक होती हैं। अनजाने में ही उनकी इस क्रिया से परागण में वृद्धि होती है। परिणाम स्वरूप फसलों का उत्पादन बढ़ जाता है। मधुमक्खियों में मजदूर मक्खी मकरंद के लिये आस-पास के 2 किलोमीटर वर्ग क्षेत्रफल में घुम फिरकर मकरंद एकत्रित करती है।
मधुमक्खी पालन के लिए इटालियन एपीसमेलोफेरा नामक मधुमक्खी उपयुक्त सिद्ध हुई है जो इस क्षेत्र की आदर्श मौसमी परिस्थियों में बेहतर ढंग से कार्य कर अधिक से अधिक शहद का उत्पादन करती है। मधुमक्खी पालन के व्यवसाय में शहद के अलावा रायल जैली, पराग कण, गोंद एवं मोम का उत्पादन भी होता है, किन्तु आवश्यक संसाधन व तकनीकी सुविधा उपलब्ध नहीं होने के कारण अभी तक शहद के अलावा अन्य पदार्थों का लाभ प्राप्त नहीं किया जा रहा है जबकि इनका विक्रय मूल्य शहद से कई गुना अधिक है।
मधुमक्खी पालन व्यवसाय की दो सबसे बड़ी दिक्कतें हैं। पहली दिक्कत है फूलों की अनुपलब्धता और दूसरा बढ़ता तापक्रम। अगर पर्याप्त फूल न रहें और तापमान अधिक रहा तो मधुमक्खियों के लिए शहद उत्पादित कर पाना कठिन हो जाता है। 20 डिग्री से ज्यादा तापमान हुआ तो मधुमक्खियों की मृत्युदर बढ़ जाती है। जब सरसों की फसल समाप्त हो जाती है तो इन्हें उतने फूल ही नहीं मिलते हैं कि ये शहद बना सकें। इसीलिए इन्हें उतरांचल अथवा तराई क्षेत्रों में ले जाना पड़ता है जहां तापमान कम होता है और अनेक जंगली वनस्पतियों के फूल उपलब्ध होते हैं।
मधुमक्खी पालन की 50 डिब्बों की एक आदर्श यूनिट के लिए करीब 1 लाख 50 हजार रुपये व्यय करने पड़ते हैं। एक वर्ष में ही इन डिब्बों से 2500 किलोग्राम शहद मिल जाती है। साथ ही डिब्बों की संख्या भी दोगुनी हो जाती है जिससे एक ही वर्ष में मधुमक्खी पालक की लागत वसूल हो जाती है और अगले वर्ष से उसको औसतन 2 लाख प्रतिवर्ष मुनाफा मिलना प्रारम्भ हो जाता है।
यदि शहद का समर्थन मूल्य 500 रुपये क्विंटल भी घोषित कर दिया जाए तो यह व्यवसाय इतनी तेजी से बढ़ेगा कि राजस्थान के सरसों उत्पादक जिलों में करीब 25 से 30 हजार युवकों को अतिरिक्त रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे। साथ ही पैदावार भी 15 से 20 प्रतिशत बढ़ जायेगी।

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